Kashi ka News. सेवा,सुशाशन व सांस्कृतिक संरक्षण की त्रिवेणी की प्रतिमूर्त्ति लोकमाता अहिल्याबाई- कुलपति

 सेवा,सुशाशन व सांस्कृतिक संरक्षण की त्रिवेणी की प्रतिमूर्त्ति लोकमाता अहिल्याबाई- कुलपति 

ब्यूरो चीफ़ आनंद सिंह अन्ना 

वाराणसी। दिनांक 31 मई, भारतभूमि की दिव्य परम्परा में जिन व्यक्तित्वों ने अपने कर्तव्य, सेवा और धर्मनिष्ठा से इतिहास में अमिट छाप छोड़ी है, उनमें पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्याबाई होलकर का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। उनका जीवन नारी शक्ति, लोकसेवा, सांस्कृतिक संरक्षण और सुशासन का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है। इस वर्ष हम उनकी 300वीं जयंती (त्रिशताब्दी वर्ष) अत्यंत श्रद्धा, गर्व और प्रेरणा के साथ मना रहे हैं। उक्त विचार सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो बिहारी लाल शर्मा ने माता अहिल्याबाई होल्कर जयंती पर्व पर उनके तस्वीर पर माल्यार्पण कर विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए व्यक्त किया।

कुलपति प्रो शर्मा ने कहा कि अहिल्याबाई का जीवन इस सत्य का प्रमाण है कि भारतीय परंपरा में नारी को केवल श्रद्धा नहीं, नेतृत्व भी प्राप्त था। वे मालवा की साम्राज्ञी अवश्य थीं, किंतु उनका हृदय एक मातृभाव से ओतप्रोत था, इसीलिए वे ‘लोकमाता’ कहलाईं। पति की असामयिक मृत्यु और पुत्र वियोग के बावजूद उन्होंने जिस धैर्य, विवेक और धर्मबुद्धि के साथ शासन किया, वह आज के युग में भी शासनप्रणाली और सामाजिक उत्तरदायित्व का आदर्श है। उनका शासन न केवल न्याय और कल्याणकारी योजनाओं का उदाहरण था, अपितु भारतीय संस्कृति और तीर्थ परंपरा की पुनर्स्थापना का भी केन्द्र था। उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ, रामेश्वरम्, द्वारका, अयोध्या, गया, बद्रीनाथ आदि अनेकों तीर्थस्थलों का पुनर्निर्माण एवं व्यवस्थापन कराया। उस काल में जब देश राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहा था, लोकमाता अहिल्याबाई ने एक सांस्कृतिक शृंखला को पुनः जाग्रत किया।

उन्होंने कहा कि अहिल्याबाई का जीवन तीन मूल स्तंभों पर आधारित था धर्म, सेवा और न्याय। वे प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में पूजा-अर्चना करके दिनभर प्रजाजनों की आवश्यकताओं, न्यायालयीन मामलों और जनकल्याण योजनाओं में लगी रहती थीं। उनके न्याय में राजा और प्रजा समान रूप से उत्तरदायी माने जाते थे। उन्होंने धन-संपत्ति को कभी वैभव नहीं, सेवा का साधन माना। उनकी जीवन उन मूल्यों का मूर्तरूप था, जो संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों की आत्मा हैं, भारतीय संस्कृति, संस्कार, विद्या और सेवा। आज जब हम भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृत भाषा के पुनरुत्थान का संकल्प ले रहे हैं, तब लोकमाता अहिल्याबाई की स्मृति हमारे लिए मार्गदर्शक बनती है। उनका जीवन संदेश देता है कि शिक्षा केवल ज्ञान का संचार नहीं, चरित्र निर्माण, नैतिकता और सेवा की भावना का जागरण है। वे स्वयं संस्कृत के प्रति आदर भाव रखती थीं और विद्वानों को संरक्षण देती थी। आज जब हम 21वीं सदी में ‘नारी सशक्तिकरण, सुशासन और संस्कृति संरक्षण’ की बात करते हैं, तो लोकमाता अहिल्याबाई का जीवन हमें बताता है कि यह कोई आधुनिक विचार नहीं, अपितु हमारी परंपरा की आत्मा है। उन्होंने शासन को सेवा का माध्यम बनाया, संस्कृति को समाज का आधार बनाया, और स्त्री को समाज के केन्द्र में प्रतिष्ठित किया। पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्याबाई होलकर जी की त्रिशताब्दी जयंती केवल एक ऐतिहासिक स्मृति नहीं, यह एक जीवित प्रेरणा है कि कैसे व्यक्ति साधन-संपन्न होते हुए भी संयमित, सेवा-निष्ठ, न्यायप्रिय और लोकमंगल के लिए समर्पित हो सकता है। इस पुण्य अवसर पर उन्हें शतशः श्रद्धांजलि अर्पित करता है और संकल्प लेता है कि उनके आदर्शों को शिक्षा, शोध और सेवा के प्रत्येक स्तर पर जीवन्त बनाएगा।