ज्योतिषाचार्य मोहन मिश्रा ने बताया शन्नै: शन्नै: चरति शनिश्चर का रहस्य।
ब्यूरो चीफ़ आनंद सिंह अन्ना
वाराणसी। भारत के पुराणों एवं इतिहासों में अनेकों दानवीरों का उल्लेख है किंतु मानव जाति के कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले एक मात्र महर्षि दधीचि का नाम मिलता हैं।लोक कल्याण के लिए शरीर त्याग करने वालों में सर्वश्रेष्ठ महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से निष्ठा थी। देवताओं के मुख से यह जानकार कि मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र से ही असुरों का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया। श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांस पिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी उनका वियोग सहन न कर पाई और पास ही में एक पीपल के कोटर में तीन वर्ष के बालक को रख स्वयं पति के साथ सती हो गई। महर्षि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा उनका बालक भूख, प्यास से व्याकुल हो कर चिल्लाने लगा। जब कोई वस्तु न मिली तब कोटर में गिरे पीपल के गोदों (फल) को खाकर येन केन प्रकारेण जीवित रहा। एक बार देवर्षि नारद वहां से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देख कर उसका परिचय पूछा बालक तुम कौन हो, तुम्हारे माता पिता कन है? बालक ने कहा कि यही तो मैं भी जानना चाहता हूं। तब नारद ने ध्यान धर कर देखा और आश्चर्यचकित हो कर बताया कि हे बालक! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर देवताओं ने वृत्रासुर को मारा था। तुम्हारे पिता की मृत्यु 31 वर्ष की आयु में ही हो गयी थी। बालक ने पूछा कि मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था तथा मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण? नारदने बताया सबका कारण शनिदेव की महादशा है। इतना बता कर नारद ने पीपल के गोदों को खाकर जिंदा रहने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया। देवर्षि के जाने के बाद पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा की घोर तपस्या से उन्हें प्रसन्न किया और वरदान में अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी चीज को जलाने की शक्ति मांगी। ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त करने के बाद पिप्पलाद ने सर्वप्रथम शनिदेव का आह्वान कर उन्हें बुलाया और सामने आते ही आंख खोलकर भस्म करना शुरू कर दिया। शनिदेव सशरीर जलने लगे जिससे ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा करने में सभी देवता विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के आगे अपने पुत्र को जलता देख कर ब्रह्मा जी से प्रार्थना करने लगे।अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयं पिप्पलाद के समक्ष प्रकट हुए और शनिदेव को मुक्त कर, दो वरदान मांगने को कहा। तब पिप्पलाद ने दो वरदान मांगे-पहला कि जन्म से पांच वर्ष की अवस्था तक किसी बालक की कुंडली में शनि की महादशा न हो जिससे कोई बालक अनाथ न हो। दूसरा मुझ अनाथ बालक को पीपल ने शरण दी अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय से पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उस पर शनि की महादशा का असर नहीं होगा। ब्रह्मा जी ने वरदान दिया तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके मुक्त किया। जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वह तेजी से चलने में असमर्थ हो गए।अतः तभी से शन्नैः शन्नैः चरति यः शनिश्चरः अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है कहलाए तथा आग में जलने के कारण शनिदेव काली छाया वाले और अंग भंग रूप में हो गये। सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक महात्मय है। उक्त जानकारी ज्योतिषाचार्य मोहन मिश्रा, वृंदावन कॉलोनी वाराणसी ने दी।